22.1.19

यूँ शुरू हुआ लेखन । पार्ट1




लेखन यात्रा, जीवन का एक ऐसा मोड़ है , एक ऐसा पड़ाव है जिससे आप कब अचानक  टकरा जाएँ आपको पता ही नहीं चलेगा और इसे आप अपने जीवन की सबसे खूबसूरत घटना मानेंगे यकीनन ।
लेकिन मेरा मानना है कि साहित्य के प्रति अनुराग का बीजारोपण कहीं न कहीं बचपन में ही हो जाता है ।यदि ऐसा नहीं होता तो विज्ञान की विद्यार्थी मैं, साहित्य  के साथ साथ लेखन से इतना लगाव न लगा बैठती ।कालेज के वक्त पढाई के दौरान इतना वक्त कहाँ था कि हम साहित्यिक अभिरूचि में गहरे उतरते । कालेज का एक रूटीन जीवन ,पढाई , प्रैक्टिकल , होस्टल की अपनी परेशानियां और समय समय पर  होम सिकनेस । घर भागने के प्लान से जब तब व्यथित होते मन को हवा और मिलती क्योंकि रूम मेट वैसी ही थी जो छुट्टी के बाद होस्टल पहुँचते ही अगली छुट्टी की गणना करने बैठ जाती थी तो स्वभाविक था कि घर से बेहद लगाव रखने वाली लड़की में स्थिरता बनती कैसे ! सच है साहित्य पढ़ने का उतना मौका साईस स्टूडेंट होने के नाते और  पढाई में उलझे रहने के वजह से कम ही मिला ।
                    पर मुझे याद है बचपन में जब तीसरी या चौथी कक्षा में थी तब हमारे पिताअक्सर शाम के वक्त कवियों और लेखकों की बातें हमें बताते थे ।महादेवी वर्मा , हरिवंश राय बच्चन , पंत जी,निराला ,विद्यापति  लगभग सभी बड़े कवियों के जीवन , उनकी रचनाएं, उनसे संबंधित बातें पिता हमसे करते ।अपने पलंग पर  न्यायालय से आने के पश्चात  वे आराम करते औऱ खूब तरह तरह की बातें बताते और उनको घेर कर बैठते हम सब । मेरे पिता के रिलैक्स करने का मनपसंद तरीका हमसे मन भर बातें करना था । तभी मेरे दिमाग में ये बातें घर करने लगीं कि काश हमारे घर में खूब सारी  किताबों वाली एक बड़ी सी लाईब्रेरी हो जिसमें सभी नामी लेखकों की सभी किताबें सुशोभित हो और बड़ी होकर मैं उन्हें खूब पढ़ूँ । कभी मैं सोचती काश पापा एक लेखक , एक कवि होते तो हमारे घर बड़े बड़े  लेखकों - कवियों का आना जाना होता । और मैं उनसे मिल पाती ,उनकी बातें सुन पाती । मन ही मन मैं सोचती पापा ने ये न्यायिक सेवा की नौकरी क्यों की ।काश वे इसके स्थान पर लेखक होते । स्कूल की ऊँची कक्षाओं में पहुँचते पहुँचते किताब पढ़ने का नशा सा रहने लगा । हम दोस्तों के बीच कहानियों की किताबों का खूब आदान प्रदान होता । क्लास में भी टीचर की नजर बचा हम बाईन्ड की हुई  अमर चित्र कथाएँ  खूब पढ़ते । आशय यह है कि नींव  मेरे पिता ने मुझमें बचपन में ही बो दिया था ।कही दबे वो सिचिंत हो रहा था और मौका पाते ही कब लेखनी का रूप लेने लगा मैं खुद नहीं जान पाई क्योंकि बिहार के तमाम घरों की तरह पिता और माँ  के हमारे लिए तमाम सपने थे  वे हम सब को डाक्टर , इंजीनियर या आई एएस  बनाना चाहते थे और हमारे जेनरेशन में माता पिता का सपना ही हमारा निज सपना हुआ करता था ।जीवन का लक्ष्य इन्हीं सपनों के इर्द गिर्द घूमता था । जब मेडिकल प्रवेश परीक्षा कुछ नंबरों से छूटी तो हम कुछ दोस्तों की हालत यूँ हो गई मानो जीवन का ध्येय ही खत्म हो गया अब तो।जो मित्र सफल रहे वे सबसे बड़े विजेता नजर आने लगे । अपने मेडिकल में प्रवेश पाए दोस्तों के लिए खुशी तो थी पर अपना भविष्य अंधकार में और अनिश्चित जरूर नजर आने लगा क्योंकि हम जो दोस्त बच गये उन्हें बेमन से बी.एससी में दाखिला लेना था । यह विद्यार्थी जीवन में पहला झटका था ।इस ऊहापोह में जीवन आगे बढ़ चला.......

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बचपन

बचपन की उन शैतानियो को प्रणाम उन खेलों को नमन