20.2.19

मन का भँवर

क्या बात है काका...आज बड़े चुप चुप से बैठे हैं...आज पार्क मे घूमने नहीं जाना क्या ?...सुवर्णा ने चाय का प्याला पकड़ाते हुये पूछा ….| नहीं रे  बेटा , आज मन नहीं हो रहा …..क्यूँ
तबीयत तो ठीक है ना .....चलिये आप आराम करें मैं  सूप बना कर लाती हूँ ……. नहीं बेटा  चिंतित होने वाली बात नहीं ......रतनदेव जी ने सुवर्णा को आश्वस्त करते हुये कहा और कमरे मे चले गए | शाम में  वे अकसर कॉलोनी के पास वाले पार्क मे घूमने जाते थे | पर आज उनका अनमना मन एव् तलमलाती सी चाल को देख सुवर्णा व्यथित हो उठी | पैजामे की लटकती डोरी को  सम्हालते  वे अपने रूम की ओर मंथर गति से जा रहे थे | फिर अचानक सुवर्णा को बुला कर पूछा... क्या तुमलोग के  कोई दोस्त आज भी खाने पर आने वाले हैं...... हाँ काका इनके आफिस में मिस्टर पाटिल बॉस बन कर आए हैं | वे सपत्नीक खाने पर आयेंगे....आज मैं ऑफिस से जल्दी वही सब तैयारी करने आ गई | नौ बजे आयेंगे.... अच्छा, तब मैं उस वक्त कपड़े  बदल लूँगा ,पैंट शर्ट चढा लूँगा  |वे दिवाकर के बॉस हैं ना ……पर काका इन सब की क्या जरूरत है | फिर आप पर तो ये कुर्ता पैजमा कितना फब रहा है सुवर्णा ने तपाक से कहा ….. हाँ ठीक ही है ….. पर देखो ना ये कुर्ता कितना लंबा और ढीला है और .... ये पैजामा भी दर्जी ने देखो कितना चौडा  सिलाई कर  दिया है ..डोरी भी छोटी है...  पेट पर कसी जाती है | पर कुर्ता कहाँ ज्यादा लंबा है काका ...ठीक तो है ….. थोडा  ढीला ढाला  रहेगा तभी  तो कम्फरटेबल  होगा ,  सुवर्ण ने उन्हें आश्वस्त करते हुये कहा | अरे बेटा जिन्हें  आदत होगी उन्हें ना कमफ़रटेबल  होगा |रतनदेव जी मन ही मन बुदबुदाये | कमरे में जा पेपर को तीसरी बार पढने की कोशिश करने लगे |
            इधर सुवर्णा किचेन में जा व्यंजनो की फेहरिस्त में उलझ गई | उसने सोच रखा था अपने परंपरागत डिश का कायल कर के रहेगी दिवाकर के सर  एवं उनकी पत्नी को | आखिर अपने स्टेट की इज्जत का सवाल है | काम करते करते सुवर्णा मुस्कुरा पड़ी |  दिवाकर के प्रमोशन और इंदौर ट्रान्सफर होने के बाद वह किस्मत वाली रही कि उसे भी वही ट्रान्सफर मिल गया | बेटी  को भी अच्छे स्कूल मे दाखिला मिल जाने से वे लोग फूले नहीं समा रहे थे | जब तक दिवाकर की  अपने गृह राज्य मे पोस्टिग थी, रतनदेव जी की  खूब मजे में कटी | महीने में दो  तीन बार अपने गाँव के चक्कर  लगाना उनका प्रिय काम था  | सुवर्णा का काका यानी अपने ससुर जी का  यूं जब तब बस का सफर कर गाँव जाना बिलकुल नहीं भाता था  पर दिवाकर पिता की गतिविधियों पर रोक नहीं लगाना चाहता था | काका के घूमते रहने का चस्का तो खत्म ही नहीं होता …. सुवर्णा चिढ़ चिढ़ कर कहती ...ये क्या बात हुई जब तब कोई न कोई बहाना कर गांव चल पड़ते हैं । जाते हैं कुछ दिन का कहकर और लगभग महिने भर को रह जाते हैं ….हम जितनी केयर करेंगे वहाँ नहीं होगा । दिवाकर उसकी बातों को मुस्कुरा कर टाल जाता ।
               अपने ससुर को वह शादी के बाद भी काका ही कह कर बुलाती थी | असल में सुवर्णा के घर के पास ही  रतनदेवजी की  बहन का घर था | अपने गाँव से सात किलोमीटर दूर बसे  इस रमणीक शहर में रतनदेवजी अक्सर बहन के घर आते जाते रहते थे | उनकी बहन की छोटी सी पड़ोसन सुवर्णा , काका काका कहते उनके आस -पास ही डोलती रहती | बड़ी बड़ी आँखों वाली, घुँघराले काले बालों की  आँखों पर आती लट को बार  बार पीछे समेटती, फ्रिल के फ्राक  पहने रहने वाली चहकती सुवर्णा से  रतनदेवजी को बड़ा लगाव हो गया था |वे अक्सर उसके लिए खाने कोई न कोई चीज अवश्य ले आते । बहन के घर आने पर उनकी नजरें उसे ही ढूँढती और सुवर्णा भी उन्हें पीछे से “ भौं “कर डराने के बाद ताली बजा बजा खूब हँसती । ऊँची कक्षा मे पहुंचते पहुंचते पढ़ाई में होशियार सुवर्णा के विचार खुलते गये , स्वभाव में गंभीरता आने लगी और वह रतनदेव जी से देश विदेश के विभिन्न मुद्धों पर खूब बहस भी करती और अपने विचार रखती |अपने तर्को से अक्सर उन्हे पराजित और चुप भी  कर डालती | रतनदेवजी सुवर्णा के ज्ञान का विस्तार देख फूले नहीं समाते | गर्व से अपनी बहन से कहते इसकी माँ से कह देना बिटिया को बड़े मन से पाला है | बहुत होशियार है बिटिया। एक दिन जरूर नाम रौशन करेगी |                                                         
।              पखेरू समय अपने पंखो को सँवारता अपनी उड़ान मे व्यस्त था | मौसम बदलते गए । सूरज की किरणें अलसुबह उठतीं, धरती की देख भाल करतीं फिर शाम को उतरती देख, विदा लेती मानो अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हुई हों । शाम चंद्रमा की रोशनी में धरती का हाथ रात्रि को सौंप अपने कर्तव्य का निर्वाह करती । जीवन चक्र घूम रहा था । प्रकृति अपने नियम के दायरे में चल रही थी ।    
                 रतनदेवजी का एकमात्र पुत्र 'दिवाकर' अपनी उच्च शिक्षा पूरी कर एक कंपनी मे कार्यरत हो चुका था | रतनदेव जी प्राचार्य के पद से अवकाशप्राप्त कर चुके थे | चार वर्ष पूर्व पत्नी के देहांत के बाद मानसिक तौर पर थोड़े अकेले अवश्य हो गए थे | परिस्थितियों ने उन्हे थोड़ा और अंतर्मुखी बना दिया था | बहन अक्सर भाई को देखने आतीं रहती | पड़ोसी भी भद्र रतनदेवजी का बहुत ध्यान रखते | उनके घर सुबह शाम बुजुर्गों की बैठकी लगती ।पास पड़ोस से उनके मना करने के बावजूद कोई न कोई पकवान बन कर आते रहते । साथ ही दिवाकर की शादी के लिये धीरे धीरे उन पर चौतरफा दबाव भी पड़ना शुरू हो गया था | सिद्धांतप्रिय रतनदेवजी दिवाकर की हरी झंडी का इंतजार कर रहे थे | बहन गुस्सा करती  ….अरे भैया दिवाकर  वैसा लड़का नहीं जो मुँह से कुछ बोलेगा और  कोई पसंद  होती तो जरूर बता देता मुझे .....अरे तू नहीं जानती नया जमाना है ..रतनदेवजी दलीले देतें ....फिर एक दिन दिवाकर का फोन आ पहुँचा कि  तबीयत ऐसी गड़बड़ाई कि हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा | यह जान कर रतनदेव जी थोड़े  गंभीर हुये और एक दिन अचानक बहन के घर आ कर बोले चल बन्नो दिवाकर की शादी ठीक कर आते हैं | बहन, भाई के इस कथन पर हंस पड़ी और मारे खुशी बोल उठी  मेरे भोले भैया शादी के लिये आई  तस्वीरों  में लड़की देखनी होगी दिवाकर के लायक .....तू ऐसा कर... सबसे अच्छी  वाली साड़ी पहन ले.. मैं मिठाई  ले कर आता  हूँ...... रतनदेव जी बहन को बोलने का मौका ही नहीं दे रहे थे| थोड़े ही देर बाद वे  बहन के साथ एक योग्य कन्या के  घर पर याचक बन कर खड़े थे | बहन की आंखे आश्चर्य से फैली  जा रही थी पर उन्होने  बहन को इशारे से चुप करा दिया था |अपने सुयोग्य बेटे के लिये उन्होने गुणवान सुवर्णा को उसके माता पिता से मांग लिया था | इस तरह सुवर्ण  जो खुद एक बैंक  आधिकारी बन चुकी थी रतनदेव जी की बहू बन उनके घर आ गई |
                      सुवर्णा विवाह पाश्चात भी रतनदेव जी को काका कहती रही | और उनकी उम्मीदों पर एकदम खरी उतरी | दरअसल सुवर्णा एक उम्दा इंसान थी जिसके गुणों को रतनदेव जी ने पहले ही पहचान लिया था |अब वह अपने बेटे और घर के लिये इतमिनान हो चुके थे
              अपने हमउम्र दोस्तो के साथ उनकी खूब जमती| सुबह शाम की सैर, प्रदेश - देश की राजनीतिक परिचर्चा से लेकर अपने समय के गाने और आज के फूहड़ बोल वाले गानों  पर लानत जैसे चर्चे उनके बीच बेखटक होते | कई मित्रों द्वारा दबे स्वर में  बहुओ के कड़क रूप का चित्रण भी  अछूता विषय  नहीं रहता | तब रतनदेवजी को एक गुणी युवती को यूँ माँग कर अपनी बहू बनाने के फैसले पर बड़ा फक्र होता | और अब दिवाकर के तबादले के बाद रतन देव जी को अपना शहर , अपने दोस्तो के  छूट जाने  का आंतरिक दुख हो रहा था  पर बच्चो के साथ जाना भी उन्होने जरूरी समझा |मितभाषी रतनदेव जी अपने दोस्तो के बीच अत्यंत लोकप्रिय  थे और सब उनके जाने से दुखी थे|  बुजुर्ग शिवराम जी कह पड़े पता नही जब आप यहाँ लौटे हमारी गिनती यही रहेगी या घट जायेगी | रतन देव जी ने उनके मुँह पर हाथ रख दिया और सांत्वना  देने लगे |
                नए शहर में, नए जीवन मे बेटा बहू ताल से ताल मिला कर चलने की पूरी कोशिश में लग गये ,नतीजतन व्यस्त होने लगे |सात साल की पंखुरी स्कूल जाती | लंच के वक्त पंखुरी को स्कूल से ले कर सुवर्णा  घर आती ,रतनदेव जी एवं पंखुरी को खाना खिला फिर भागती दौड़ती वापस ऑफिस पहुँच जाती |उसके बाद के घंटे  एक मेड के ही सहारे दादा पोती रहतें |स्वर्णा के आते ही मेड जाती और रतनदेवजी पास के पार्क मे टहलने जाते |अपने मन को नए राज्य मे रमाने की पूरी कोशिश कर रहे थे | अपने गृह राज्य में एक मिजाज के लोग ,पहनावा भी सबका एक सा ,हर तरफ अपना घर सा माहौल ,रतन देव जी भूल नहीं पाते |
                               गर्मी से सदा परेशान रहने वाले रतंनदेव जी घर पर सदा लुंगी और बनियान  में बने रहते, बाहर जाने पर उन्हे अपना धवल शर्टनुमा स्पेशल कुर्ता और फ़हफह धोती पहनना ही पसंद था | इंदौर में शाम में अकसर दिवाकर के ऑफिस से कोई न कोई मिलने आ ही पहुँचता | रतन देव जी बनियान - लूँगी मे अकसर बैठक में या तो समाचार देखते या पेपर पढते | किसी के आने पर उन्हें थोड़ा असहज सा महसूस होता और वे अपने कमरे में चले जाते |उन्हें अपना पहनावा खुद में अटपटा लगता |सब उन्हें बाहर बुलाते पर वे कभी सरदर्द कभी निंद्रा का बहाना बना मना  कर देते |हालांकि वे ज्ञान के भंडार थे जब बातें करते तो लोग उनके जीवन के अनुभवो को खूब रस ले ले कर सुनते | पर इधर उनकी लोगों के बीच कम सहभागिता सुवर्णा को परेशान किए जा रही थी | वह अकसर जिद  कर बैठती कि क्यों न उनका पूरा चेकअप कवाया जाये, पर इस प्रयास को  वह अकसर खारिज कर देते ,यह कह कर कि नई जगह के मौसम- पानी का असर होना स्वाभाविक  है |
             धीरे धीरे पार्क में उनकी बातचीत कुछ हम उम्र बुजुर्गो से गाहे बेगाहे होने लगी |एक बार बातों ही बातों मेंएक बुजुर्ग ने पूछ लिया अच्छा रतनदेव जी आप उत्तर तरफ  के हैं क्या ? जी सही कहा आपने ,मैं बिहार से  हूँ |पर आपने कैसे पहचाना... रतनदेव जी पूछ बैठे | असल में जनाब आपकी बातचीत का अंदाज बताता है... बोलने का लहजा कहता है कि आप उत्तर  साइड के हैं ...फिर तो बिहार की पॉलिटिक्स ,बदलते राजनीतिक परिदृश्य, बिहार के पिछड़ेपन आदि अकसर चर्चा का विषय बनने लगे | इन सबके बीच शिक्षक रतनदेव जी बिहार  के बच्चों की प्रतियोगिता परिक्षाओ में उच्च  कोटि के प्रदर्शन के विषय में बताने से नहीं चूकते | उन्हे बिहार के पिछड़ेपन पर दबी आवाज में ताने सुनने को अकसर मिलते |कहने को रतनदेव जी काफी कुछ कह सकते थे क्योंकि उन्होने बिहार को अपने आँख के सामने बढ़ते हुये देखा था  पर उनका गंभीर  स्वभाव नए लोगों के बीच उन्हे ज्यादा बोलने की इजाजत भी नहीं देता था | बिहार के लोगो के खास लहजे में बोलने की बात तो अकसर उठती | इन बातो  से उन्हें बहुत कोफ्त होती  |
        घर पर भी पिता पुत्र का रिश्ता भी  एक बंद लिफाफे के समान था |दोनों एक ऐसे परिवेश के उदाहरण थें जहां पिता -  पुत्र के बीच लगाव की सीमा असीमित  थी पर उसे जाहिर करना मानो कोई लज्जा का विषय हो |शायद ही किसी विषय पर दोनों के बीच  खुल कर बातचीत होती | ऐसे में सुवर्णा ही दोनों के बीच सेतु बनने का काम करती |शुरू से ही रतनदेव जी मन की और मन भर सारी बाते अपने रिश्तेदारों और अपने निकटतम मित्रों से ही कर पाते |पर यहाँ दोनों का घोर अभाव था | बहू उन्हे घर, ऑफिस एवं मेहमानों के आवभगत के बीच ही भागती दौड़ती नजर आती | एक दिन तीन बजे के करीब पार्क में मिलने वाले तीन चार बुजुर्ग अचानक घर पर उनसे मिलने  चले आये |पार्क के सबसे बगल में उनका घर जो ठहरा | रतनदेव जी ने उन्हे प्रेम से बैठाया |तभी उनमे से एक ने तपाक से कहा भाई रतनदेव जी ...भाई  इस बनियान और लूँगी मे आप बिलकुल किसान मजदूर लग रहे हैं |फिर क्या था सभी ठठा कर हँस पड़े |बेचारे रतनदेव जी झेपी सी हँसी हँसते हुये अपनी बनियान नीचे खीचने लगे | देखों भाई यहाँ का तो एक कल्चर है ढंग से रहने का | चाहे घर हो या बाहर …उनमें से एक ने फरमाया  । सारी शाम उस दिन रतनदेव जी कुछ सोच में पड़े रहे   | दूसरे  दिन  बाजार जा अपने लिये कुछ रेडीमेड कुर्ता एवं पैजामा खरीद लाये और उसी दिन उसे पहन भी लिया पर उस दिन वे घूमने नहीं गये |दिन भर बड़ा अनमना सा मन हो गया उनका |इतने सालो से मैने अपने पहनने के तौर तरीकों पर क्यों ध्यान नहीं दिया …..दिवाकर की माँ ने भी कभी टोका नहीं ……वे लगातार सोच की दरिया मे डूब उतरा रहे थे |नहीं नहीं ...अब मुझे अपना तरीका बदलना होगा ....मै अब घर पर कुर्ता पैजामा ही पहना करूंगा |ऐसे में दिवाकर के ऑफिस से भी कोई  अचानक आयेगा तो  उसे असहज  नहीं लगेगा |वह कहता तो कुछ नहीं पर सचमुच मैं कैसा अटपटा दिखता हूंगा ये बनियान  और चेक वाली लूँगी में | रतनदेव जी सोचे जा रहे थे | उस दिन दिवाकर घर लौटा तो पिता को कुर्ता पैजामा में बैठा देख चकित हो गया |  क्या बात है पापा ...बोले बिना नहीं रह सका| क्या ?.... क्या बात ?...... रतनदेव जी ने नजरें चुराते हुये कहा …….असल में दिवाकर ने आज तक पिता को कुर्ते पैजामे मे देखा ही न था |घर पर सदा वे कॉटन का  रंगीन बनियान और चेक वाली लूँगी ही पहनते थे | और बाहर जाने पर शर्ट नुमा सफ़ेद खादी का कुर्ता और फह फह धोती ही उनका ड्रेस हुआ करता था |बनियान और कुर्ता वे दर्जी से ऑर्डर दे सिलाया करते थे | दिवाकर सुवर्णा के पास जा कर थोड़ा गंभीर हो कर बोला क्या बात है पापा की तबीयत तो ठीक है ना ….अचानक यह क्या पहन कर बैठ गये हैं……थोड़े असहज, थोड़े  परेशान लग रहे हैं…….वही तो मैं देख रही हूँ …..पता नहीं काका को क्या हो गया है …..आज दिन में खुद जा कुर्ता पैजामा खरीद लाये |मुझे कुछ कहा  ही नहीं |पहले तो ऐसा कभी नहीं करते थे |सुवर्णा के स्वर में चिंता साफ झलक रही थी|
                                 दो दिन तक जब वे  वॉक के लिये नहीं  निकले तो तीसरे दिन सुवर्णा ने उन्हे टोका चलिये काका हमलोग थोड़ा घूम आये देखिए ना पंखुरी भी कैसी बेचैन हो रही है ...|बहू के जबर्दस्ती करने पर वे चुप ना रह सके और उसके साथ पार्क चल पड़े |पार्क में वे सभी बुजुर्गो का जत्था बातें करता मिल गया |”ये बहू है मेरी” रतनदेव जी ने सुवर्णा का परिचय कराया |क्या बात है रतनदेव जी दो  तीन दिनों से दिख नहीं रहे थे आप... लगता है आप उस दिन हमारी बातों का बुरा मान गये......किस दिन का और किस बात का चाचाजी .....सुवर्णा बोल पड़ी ....उसे एक बुजुर्ग द्वारा हँस हँस कर कही जा रही ये बाते थोड़ी ऊटपटाँग लग रही थी |बेचारगी से मुसकुराते काका पर उसे तरस आने लगा |कोई बात जरूर है.... वह मन ही मन सोचने लगी |घर आने पर रतनदेव जी सीधे अपने कमरे में चले गये |आज सुवर्णा ने सबका खाना एक साथ लगाया| काका जी के खाने के समय पर , खुद और दिवाकर के खाने के समय से एक घंटे पहले | पर बुलाने पर भी काकाजी बाहर नहीं आये |केवल एक ही बात कहते रहे भूख नहीं बेटा बस एक रोटी खाऊँगा ,यही दे जाओ| सुवर्णा के बार बार कहने पर भी  बाहर नहीं आये |दूसरा दिन शनिवार था |सुवर्णा घर पर ही थी |  
               जब आठ बजे तक रतनदेव जी बाहर नहीं आये तो सुवर्णा चाय ले कर उनके कमरे में पहुँची |काकाजी आज इतनी देरी तक सोये हैं आप ....तबीयत तो ठीक है ना ....ओफ़्फ़ोह .....मैं ऐसा क्या करता हूँ कि तुम सब को लगता है कि मैं बीमार हूँ ....अजब करते हो तुम सब ....तुम  हमेशा मेरे सर पर ही क्यों सवार रहती हो बहू .....
रतनदेव जी झंझुला पड़े |सुवर्णा हतप्रभ रह गई |ऐसी भाषा  तो काका जी कभी नहीं बोलते थे .....हमेशा उसे बेटा बेटा कहने वाले स्नेही ससुर के मुख से ‘बहू’ शब्द उसे अत्यंत औपचारिक लगा  | 
             सुवर्णा का मन बैठ गया |मंथर गति से चलती वह लौन  में जा गार्डेन चेयर पर धम्म से बैठ गई |सर  में तीव्र पीड़ा महसूस हुई | थोड़ी ही देर मे देखा काकाजी धीमी सी चाल मे चले आ रहे है | कितना निस्तेज चेहरा हो गया है इनका और चाल भी थकी थकी सी लग रही है | सुवर्णा सोचने लगी |उनके लिये कुर्सी आगे बढ़ा दिया  | ‘बैठो बैठो बेटा’ गोया रतनदेव जी अपने ही अप्रत्याशित व्ययहार पर शर्मिंदा हो रहे थे |ऐसा है ना बेटा मैं सोच रहा  हूँ कुछ दिन के लिये घर चला  जाऊ  | क्यों काका ....सुवर्णा एकदम से हड्बड़ा गई |हमसे कुछ गलती हो गई क्या ......नहीं बेटा ऐसा कुछ नहीं है बस कुछ दिन से मन नहीं लग रहा है |अपने घर  की बहुत याद सता रही है |क्या बात है काका कोई बात आपके मन को मथ रही है .....मुझे खुल कर बताये  । हिम्मत कर सुवर्णा ने कहा , उसे अपने ससुर एकदम निरीह से , उस बच्चे से लगे जिसे अपने नई कक्षा  में मन नहीं लग रहा है और वह अपने घर वापस जाने को लालायित है |काकाजी आपके जाने से हम बिलकुल अकेले हो जायेगें...नहीं नहीं बेटा तुम सबके अपने अपने काम हैं...सब व्यस्त रहते हो ...बड़े अफसरो का आना जाना लगा रहता है |.....तुमलोग को तो मेरी वजह से परेशानी होती होगी .....रतनदेव जी रौ मे बोले जा रहे थे ......काकाजी आप ये क्या कह रहे है ...ये तो आपका घर है.... आप घर के मुखिया हैं... हम सब तो आपके पास रहते हैं |हमें आपके साथ की जरूरत है .....सुवर्णा एकदम व्यथित हो चली थी |वे ऐसे पहले कभी नहीं थे |कम बोलने वाले उसके ससुर अंदर के मजबूत इंसान थे |वे इस तरह की नकारात्मक बातें तो कभी नहीं करते थे |वे अंदर से टूटे से क्यो लग रहे हैं  | सुवर्णा चिंतित हो रही  थी |थोड़ा चुप रहने के बाद रतनदेव जी खुद ही धीमे धीमे बोलने लगे .....अरे बेटा हम लोग ठहरे खाँटी लोग ....ये फ़ाइन शहरी तौर तरीके हमें ठीक से समझ नहीं आते |अब महसूस हो रहा है की वो जो दुनिया हम जी कर आये हैं और जिसमें कोई कमी कभी नजर ही नहीं आई , वो ही सब कुछ नहीं था |कुछ तो नहीं आता मुझे ...न पहनने का का तौर तरीका न बातचीत का सलीका .....नहीं काका, आप ये सब क्या बोल रहे हैं...आप स्वाभिमान हैं हमारे ...अरे नहीं रे ....रतनदेव जी उसे बोलने का मौका ही नहीं दे रहे थे |अब देेखों ना वे मेरे दोस्त एक दिन घर आ धमके ,मुझे लूँगी और बनियान  मे देख कहने लगे मैं किसान मज़दूर लग रहा हूँ |......अरे !! सुवर्णा चौक पड़ी |सच तो ये है बेटा अब इस उमर में ये सब चोंचले नहीं हो सकते.... दिन भर कुर्ता पैजामा पहन बैठे रहो ...कितने असहज हो जाते होगे तुम सब भी  जब ऑफिस का कोई आदमी अचानक आ जाता है और मैं मजदूर के कपड़ो में बैठा होता हूँ |शिक्षक रतनदेव जी को ये बात गहरे चुभ गई थी |ओह तो ये बातें हैं.....सुवर्णा के नजरों के सामने  से जैसे पर्दा हट गया| 
             कुछ तय करती हुई बोली ठीक है काकाजी मैं रिज़र्वेशन  करा  देती हूँ| आप कुछ दिन घर से घूम कर आ जाये | सप्ताह भर बाद का टिकट ही मिल पाया | अत; सप्ताह भर बिताना अब रतनदेव जी को भार नहीं लग रहा था |घर जाने की खुशी  से वे आह्लादित हो रहे थे | एक उमंग सा जग गया था उनमें। पुराने कोई न कोई गाने के बोल दिन भर जबान पर चढ़े रहते और वे उसे गुनगुनाते भी रहते ।सुवर्णा उनमें आये परिवर्तन को देख मन ही मन मुस्कुरा पड़ती और दिवाकर से हँस कर कहती स्कूल से भागने को आतुर बच्चे हैं काकाजी ।  . .. 
         आज रतनदेव जी बड़े आराम से घूमने निकले |  पार्क के गेट  से कुछ दूर ही पहुंचे थे कि उनकी नजर एक  स्कूटी पर पड़ी जिस पर पीछे  सवार  युवक के हाथ  में छोटा सा चाकू उन्हे साफ साफ दिख गया |तेजी से पास आती स्कूटी पर सवार युवक के इरादे भांपते  उन्हें देर न लगी  | वे कुछ और सोचते इस से पहले वह युवक उनके बगल से गुजरती माँ बेटी पर पीछे से हमला करने को एकदम से तत्पर हो  चुका था |बाघ की तेज गति से रतनदेव जी ने दोनों युवको को अपने दोनों मजबूत हाथो से धर दबोचा ||चाकू वाला युवक अब महिला को छोड़ दनादन रतनदेव जी के हाथों पर वार करने लगा पर उनके मजबूत पकड़  से छूट न पाया | तब तक चारो तरफ भीड़ जुट चुकी थी और बदमाशों पर कब्जा कर चुकी थी | किसी ने पुलिस को सूचना दे दी थी |पार्क से उनके मित्र उन्हे सहारा दे डॉक्टर के पास ले जाने को तत्पर थे |
             रतनदेव जी दूसरे दिन अखबारों में छाये हुये थे| ‘मजबूत बूढी हडडियाँ और कमजोर युवा कंधे’ से  कैप्शन बुलंद थे |अनजाने में वह सब हो गया जिनकी उन्होनें कल्पना भी न की थी | उनके वे मित्र उन्हें घेरे बैठे थें ।उनके मन यहाँ न रमने के वजह से  घर जाने की सूचना से कोई  आहत, तो कोई शर्मिंदा, तो कोई फिक्रमंद से दिख रहे थे |  चर्चा ये ज़ोर पकड़  रही थी उनका टिकट कैसे कैन्सल  कराई  जाये  |दिवाकर पंखुरी को दादाजी के बहादुरी के  किस्से बार बार समझा रहा था क्योंकि वह समझ ही नहीं पा रही थी कि दादाजी ने क्या स्पेशल कर डाला है  कि  लोग उन्हे घेर कर बैठे हैं |रतनदेव जी के  हाथों पर मलहम लगते सुवर्णा ने कहा  काकाजी कितने दिन से मैंने और आपने किसी विषय पर बहस नहीं की  | क्यों न हम इस विषय पर विचार रखें कि नई जगह भी  नये रिश्तो सा समय लेती है अपनापन पनपने म़ें....   हम कहीं  भी  अपनी आंतरिक शक्ति और सकारात्मक विचारधारा के बलबूते अपनी जगह बना सकते हैं | देखती हूँ काकाजी कौन  अपने तर्को से जीतता है ..... थोडी  देर चुप रहने के बाद रतनदेव जी मुसकुराते हुये बोलें तुम सच कहती हो बेटा हर रिश्ते  को वक्त चाहिये ....चाहे नयी  जगह नये लोग ही क्यों न हो  ....अच्छा .....समय और तारीख तो तय करो | ठीक है , एक बातचीत की जाये इस विषय पर  ...... और हाँ मेरे इन दोस्तों को बुलाना नहीं भूलना ......
           रानी सुमिता,
( 'इनकी कहानी इनकी जुबानी' पुस्तक में संकलित)
       





11 comments:

  1. Superb Sumita....marmik and very relevant

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    1. बहुत आभार ।कहानी पर आई इस प्रथम प्रतिक्रिया का स्वागत है ।

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 09 मार्च 2019 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  3. बहुत आभार आपका 💐।कुछ कारणों से लिंक पर नहीं आ पाई, उपस्थित नहीं हो पाई ।

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  4. This comment has been removed by the author.

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  5. Utkrisht... Hindi ko aapne apni kavyik bhasha se samriddh kiya hai...bhasha ke anuragi ka aabhar grahan kijiyega

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  6. बहुत आभार प्रकट करती हूँ ।हौसलाआफजाई का शुक्रिया 💐💐

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  7. आशा है आगे भी ऐसी ही मनमोहक और हृदयस्पर्शी कथाएं पढ़ने को मिलती रहेंगी और अच्छी हिंदी पढ़ने की चाह रखने वाले तृप्त होते रहेंगे

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    1. बहुत आभार अभिरूप जी , मैं कोशिश करूँगी ...

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  8. Superb !!
    Quite a realistic story about elderly men and women who are readjusting their lifestyle along with their children n their family 😊😊

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