बतिया रही थी
किताबें
हँस हँस के,
बिन दम धरे
एक युग से ...
सुन रहे थे सब
एक मन....
मुड़े पन्ने
एक झोके से
पर इस कदर,
ढूँढती फिरी
किताब
फिर जबान अपनी ,
पाया
सीखचे पीछे इंटरनेट के...
अब गुमसुम तकती हैं किताबें
एकटुक देखती हैं
मानो देखना है नियति अब
हाथ से यकायक सरकती नहीं
सूखी पंखुरी यादों में चहकती नहीं
नाम पर कलम बार बार फिसलती नही
मनपसंद पंक्तियाँ उकेरती नही...
इत उत बिखरी मुस्काती मिलती नहीं
पूछती रहती हैं मानो
कब चलेंगे हम
वापस अपनी खुली
दुनिया में
कब चलेंगे
वापस हम !!रानी सुमिता
किताबें
हँस हँस के,
बिन दम धरे
एक युग से ...
सुन रहे थे सब
एक मन....
मुड़े पन्ने
एक झोके से
पर इस कदर,
ढूँढती फिरी
किताब
फिर जबान अपनी ,
पाया
सीखचे पीछे इंटरनेट के...
अब गुमसुम तकती हैं किताबें
एकटुक देखती हैं
मानो देखना है नियति अब
हाथ से यकायक सरकती नहीं
सूखी पंखुरी यादों में चहकती नहीं
नाम पर कलम बार बार फिसलती नही
मनपसंद पंक्तियाँ उकेरती नही...
इत उत बिखरी मुस्काती मिलती नहीं
पूछती रहती हैं मानो
कब चलेंगे हम
वापस अपनी खुली
दुनिया में
कब चलेंगे
वापस हम !!रानी सुमिता
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