सुवासित थी
तुम दोपहर !
विरहनी सी तुम
गोधूली बेला!
गीत गुनती
अलसाई संध्या!
चाँदनी विहँसती
ओ निशा!
भोर तुम थिरकती
ओस चुनती...
ओ निर्वात
स्तब्ध थे तुम!
और व्योम
तुम आह्ललादित !
औऱ धरा!
तुम कितनी आनंदित !!
जब स्त्रियों ने खोले थे
मन के राज...
अविरल सुनाया था
हर्ष
विषाद
प्रेम
विरह
दुख
विजयराग..
कुछ फाग अनुराग
कुछ ह्रदय तल की आवाज....
ओ प्रकृति
साक्षी रहना तुम!
श्रवण किया है तुमने
स्त्रियों के
अंतर्मन की अनुगूँज...
साक्षी हो ना तुम !!
...............रानी सुमिता
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